मेरी नज़र में…

गुरू घासीदासजी ने जगायी सतनाम की अलख….. डॅा. पालेश्वर प्रसाद शर्मा

छत्तीसगढ़ पौराणिक ऐतिहासिक संपदा से सम्पन्न हो न हो इस पर विवाद विचार हो सकता। किन्तु यह सत्य है इस अंचल में दो पुण्यशाली संतों ने जन्म लिया – एक हैं- चम्पारण – राजिम के निकट – महाप्रभु वल्लभाचार्य और दूसरे हैं – गिरौदपुरी में गुरू घासीदास। एक ने परात्पर परब्रम्ह श्रीकृष्ण की आराधना में पुष्टि मार्ग का प्रणयन किया तो दूसरे संत ने सत् नाम की अलख जगायी । एकओर  परात्पर प्रभु की साकार-उपासना में अष्ट छाप के महाकवियों के गीतों-प्रगीतों की अनुगूंज है तो दूसरी ओर सहज शाश्वत सत्य के निराकार ईश्वर की अर्चना आराधना है । एक की साधारण में माधुर्य की महिमा है, अनुग्रह की आकांक्षा है, दर्शन की दुरूहता है, तो दूसरी ओर सहज नाम की माला है, अहिंसा का आचरण है,श्रम की निर्मल निरीहता है ।

जन्म से निरीह, स्वभाव में सरल, जाति से सर्वथा साधारण, वैभव में विपन्न, धनधान्य में निरन्न होकर भी संतान की साधना में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होगी । प्रायः अनेक साधु संत विपन्नता, विपदा के बीच विशिष्ट साधना कर सकें, ऐसा क्यों होता है ? जब जब विपदा के बादल मंडराते हैं तब तब प्रतिभा की बिजली कौंध उठती है । संघर्ष के सरोवर में ही सत्पुरूष का सरोज खिलता है, और सत्कर्म की सुरभि फैलती है । सदाचरण-सत्याचरण-सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की ओर ले जाता है – इसलिए कथन है – नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः – अशक्त निर्बल आत्मा सत्य शिव सुंदर को नहीं पा सकती। गरीबी का दर्द आदमी को माँजता है, मनुष्यता को जगाता है, शायद इसीलिए गरीब दूसरों की पीड़ा की अनुभूति का साझेदार होता है – अनुभूति-सह-अनुभूति में तथा वेदना-संवेदना में परिणत हो जाती है ।

किसी समय वर्ण-व्यवस्था समाज में कर्म विभाजन के लिए बनायी गयी होगी, किन्तु शनैः शनैः उसका रुप विरुप हो गया । व्यवस्था जाति तथा जन्म पर आकर जम गयी, थम गयीं, समाज का वृक्ष शाखा-प्रशाखा में विस्तार पा रहा था, कि डालियाँ, टहनियों में कट-छंटकर डार डार पात-पात हो गया – संगठन विघटन में बदला, जातिगत निर्ममता, द्वेष-विद्वेष ने खंडित विखंडित कर दिया । आज देश में उसका विकास विकृति के साथ फैला हुआ है । झूठे अहं में निरंकुशता पनपती है, तो निरीह प्राणी एक सीमा के पश्चात् पीड़ा में कराहता ही नहीं, विद्रोह के वैश्वानर में धधक उठता है । इतिहास में ऐसे विद्रोह के वैश्वानर में कमर भर धोती, पेट पर रोटी के लिए जूझता मनुष्य सदाचारी हो तो कैसा विस्मय । सदाचार-संयम, सज्जनता के सद्गुण लाता है शायद इसीलिए संत को अपने पशुओं से भी प्यार था । एक हलवाहा ‘‘दो बैलों की व्यथा-कथा” को प्रेमचंद समान समझता है, उन निरीह पशुओं को बलि, उन पशुओं की हत्या और फिर मांसाहार-मन कहीं पर आहत ही नहीं मर्माहत हो जाता है । आज से अढ़ाई हज़ार साल पहले तथागत को भी बलि-प्रथा से पीड़ा हुई थी और सारनाथ के मृगदांव में अमिताभ की अमृत वाणी गूंज उठी थी । उसी अहिंसा की अनुगूंज पुनरपि सुनाई पड़ी और साधारण जनता भी पशु-हत्या के विरूद्ध उठ खड़ी हुई । मांसाहार अच्छा है या बुरा – आज यह कह सकना कठिन सा जान पड़ता है, किंतु यह तो सच है कि हड्डी चबाते हुए, मांस नोचते हुए मनुष्य का चेहरा कुछ-कुछ जानवरों का सा हो जाता है । अनजाने ही पाशवी मुखड़ा दिखाई देता है । यह तो कठोर सत्य है कि पशु के मरते ही उस लाश में विषाणु बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है । निर्जीव मांस कब कितना विषाक्त हो गया – यह जानना सरल नहीं है । कसाई खाने में एक बकरे का कटा सिर जब मिमियाता है और धड़ तड़पता है, तो उसके बाद कटने वाला बकरा करूण कातर होकर छोटी सी पूंछ दबाकर निष्फल विरोध में घिघियाता है, और फटी-फटी आंखों से प्राण-रक्षा के लिए निहारता है तो कठोर – काठ को भी दया आ सकती है, किंतु ….. किंतु !  कोई कुछ भी कहे अहिंसा में जो आत्मशक्ति होती है, उसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता । स्वच्छता प्रेमी मांसाहारियों से निवेदन है, कि वे चुपचाप कसाईखाने का कृत्य देखें …… इतना ही इशारा काफी है । कलकत्ता में तो एक किलोमीटर दूर से ही मत्स्य गंध वीथिका की  दुर्गंध नासापुटों को बंद करने के लिए विवश करने लगती है ।

सत्य स्वार्थ का अवतरण, असत्य के आच्छादन से ढ़ंका है । सत्य के अन्वेषण में  साधक को सबसे अधिक संघर्ष करना पड़ता है । एक और असत्य का आक्रमण तो दूसरी ओर कटुता के कांटे, तीसरी ओर विषाक्त वातावरण तथा चौथी ओर पत्नी, पुत्र, परिजनों का प्यार, इन सबके बीच सत्य की साधना – अकेले कंठ की पुकार – अंततोगत्वा अमृत वाणी आत्मा को आत्यायित करती है । संत  के लिए जगत का जंजाल सर्वथा भयानक होता है । सतत् सावधान रहकर जिजीविषा से अनुप्रमाणित संत संयम की डगर पर सत्य की खोज में सफल होता है ।

हमारा देश कई वस्तुओं में अनोखा है, अद्भुत है । पहले भी नारी की पूजा होती थी, आज भी होती है । अंतर केवल इतना है कि पूजा आंचलिक भाषा के अर्थ में प्रयुक्त हो रही है । सुभद्रा के साथ अभद्रता मनुष्य की कुत्सा का ही परिचायक है ।

सत्य ही ईश्वर है या ईश्वर ही सत्य है – इसका बोध यदि तेंदू तरू तले हुआ तो इस अंचल के लिए कोई आश्चर्य नहीं । कांतार में वनैले फलों से लदे तरू वृक्षों की छाया भी सुखद होती है । कोकिल तो अमराई में बहकती लहकती आम्रमंजरी की तीखी तुर्श गंध से ही उलसने लगती है – उसकी काकली आप ही आप कुहकने लगती है । घने वन की नीरवता में सत्य का साक्षात्कार, सत्यबोध ही साधक को सिद्ध बनाता है । सत्याचरण ईश्वरीय मार्ग है – सहज जन मानस प्रेरित, प्रणोदित हो अनुकरण करता है, अनुयायी बन जाता है, सत्यनाम का संदेश – अमृतवाणी के रुप में घाटे-घाटे बाटे-बाटे वितरित होता है। मानवता की महिमा, संत की साधना की सुगंध चारों ओर फैलती है। कल तक विक्षुब्ध जनमानस आज संत की अमृतवाणी से आप्यावित हो गया, सत्नाम के सरोवर में डूब गया – शायद इसीलिए अनुयायी सत्नामी कहलाये । ऐसा पंथ – ऐसी उपासना पद्धति, जहां कोई भेदभाव नहीं – सत् के ईश्वरत्व में सब सराबोर हो जाते हैं । सत्य से ऊपर कोई नहीं – यह सर्वोपरि है, सर्वश्रेष्ठ है – इसीलिए सत्य ही ईश्वर है । सत्याचरण ईश्वर प्राप्ति का ही सहज मार्ग है । सदाचार में हिमालय की उचता है तो सत्नाम में गंगा की पावनता। मन के मानस से मानवता की मंदाकिनी प्रवाहित होती है । सत् की साधना ही सिद्धि है जहां साधक स्वयं साध्य बन जाता है, आराधक आराध्य में अंतर्लीन । आइये ईश्वर को सत्य को जानने का प्रयास करें – जहां जानना ही बनना है ।

डॅा. पालेश्वर प्रसाद शर्मा

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