प्रकृति का यौवन काल है बसंत..डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा
मनोभव, मन्मथ केशर में पांच फूलों के बाण होते हैं – अशोक, अरविंद, आम्रमंजरी, नीलोत्पल, और नव मल्लिका ये पांच बाण मारण, उच्चाटन, वशीकरण आदि के लिए प्रसिद्ध हैं। बड़े बड़े पाषाण मन को ये कुसुम कोमल कलियां कचोटने लगती हैं, मन कसमसाने लगता है, तब मानस कैसा कैसा करने लगता है, नसे चटकने लगती हैं, भुजाएं फड़कने लगती हैं, मन उन्मन हो जाता है, नयन खुले खुले रहते हैं, ऐसी मदिर ऋतु में प्रियतम की बड़ी याद आती है, और मानसी मीरा भी प्रणयाराधिका राधिका बन जाती है, मंजीरा पायल में बदल जाता है, तब प्राण-पिक प्रणयातुत होकर पुकार उठता है- ‘‘फागुन की ऋतु नियरानी कोई हमें पिया से मिलावे।
बसंत धरा का, प्रकृति का यौवन काल है, इसलिए वृद्ध धरणी भी सोलह सिंगार से अपने गात सजाती है, और तरू-लता, पादप-विटप तो सुषमा-श्रृंगार ही नहीं सुमन-सौरभ से सुरभित हो उठते हैं, तो भ्रमर का गुंजन वातावरण में गूंजे तो कोई विस्मय नहीं।
वसंत पंचमी-मदन महोत्सव सरस्वती पूजन होली के उत्सव का शुभारंभ है। इसी दिन एरंड के तरू को, तांबे, हल्दी की गांठ के साथ बस्ती से दूर, धरा में गाड़ दिया जाता है। वैसे होली बस्ती से दूर, वियाबान, खलिहान, मैदान में मनाने की प्रथा रही है। यही एक ऐसा त्यौहार है, जिसमें कमेरा, किसान, कवि, धनवान, बूढ़े, जवान सब अलमस्त हो जाते हैं, मदमस्त, बद मस्त हो जाते हैं, वास्तव में वसंत यौवन का, प्रेम का, रंग का, अनंग का उत्सव है।
प्राचीन काल में जब भारत समृद्ध, सुखी था, तब बसंत पंचमी से लेकर, रंग पंचमी तक मदन महोत्सव मनाया जाता था, और सोने की पिचकारी से रंग-गुलाल खेला जाता था, वे दिन कुछ मीठे मधुर थे, आज तो रंग में भंग होने का खतरा कदम कदम पर है।
बसंत पंचमी के दिन सार्वजनिक उपवन में सुंदरियां अपने अलक्तक रंजित चरण से अशोक तरू का स्पर्श करती थी, और अपने पति की पूजा करके काम देव की अभ्यर्थना भी करती थी। कहते हैं, सुंदरियों के पद-पायल की झंकार से अशोक खिल उठता था, और कामिनी, कुटज, कुवलय पान की पीक से प्रफुल्लित हो उठते थे। शायद यह सच है, कि लता तरू की और तरूणी अपने प्रियतम की तलाश में लालायित रहती है, प्रिय की लालसा बड़ी प्रबल होती है।
अमराई मौर से महक उठती है, टेसू के जंगल में लालिमा धधक उठती है, मधूक से महुवा टप टप टपकने लगते हैं, कोकिल गाता है, तब पवन भी पागल हो जाता है, तब मन भी डगमगाने लगता है।
बसत की विशेषता है, कि कमेरे से किसान तक, गरीब से धनवान तक सबमें रंग की, तरंग की, भंग की, मंजीर मृदंग की, धूम-हुड़दंग की, अजीबोगरीब मादकता मस्ती आ जाती है। यदि बसंत की वायु से कोई मनुष्य आंदोलित नहीं होता, तो निश्चय ही वह मनहूस, मरियल, मनुज है।
बसंत का प्रभाव सबसे अधिक कवियों और कलाकारों पर पड़ता है, लोकगीतों में भी वासंती-बहार गूंजती है, पुरवाई डोल रही है, मजा मार ले रे, चंदा सूरज दोनों भाई भाई हैं, त्यौहार मनाने के लिए बनिया उधार नहीं दे रहा है, चंदा, सूरज को आग लगे रे ! पैसे के बिना वसंत भी हेमंत में बदल जाता है, कुसुम भी कंटकाकीर्ण हो जाते हैं – जीवन में विपन्नता सबसे अधिक दुखदायी है।
बसंत पंचमी आते ही फाग के गीत, नगाड़ों के साथ गाये जाते हैं – फागुन मनाने के लिए सबसे पहले राधा को बलौआ दिया जाता है- दे-दे बलौआ राधे को- राधे बिन होरी न होय …! राधा प्रणय का, प्रेम का, प्रीति-रीति का, यौवन-श्रृंगार का, मान-मनुहार का, रंग-तरंग का, नृत्य-गान का प्रतीक है – गोप तथा गोपियों की रास-रंग लीला-प्रणय की पुरानी गाथा है- जो चिरंतन है, बांसुरी की स्वर लहरी, कालिंदी का किनारा, वृंदावन की वीथिका, तरूण किशोर का यूथ- प्रणय – विरह के उल्लास विषाद का रंग-स्थल है।
भारत उत्सव का देश है, जयंती जन्मोत्सव का जन्म स्थल है, संतो, सम्राटों, सेनानियों, सुंदरियों का सतरंगी कर्मस्थल है, यहां वसंत भी मदन महोत्सव मनाने प्रतिवर्ष आता है, और कमल, कामिनी, किंशुक भी विहंस पड़ते हैं।
वसंत पंचमी भगवती सरस्वती की पूजा का भी पर्व है। मां सरस्वती के हाथों में घंटा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण है, चन्द्रमा के समान सुंदर क्रांति मय आनन में तीन नेत्र हैं, जो दुष्टों का दलन करती है, उस महासरस्वती को नमस्कार है।
जगदंबा पार्वती के शरीर कोष से प्रकट होने पर कोशिकी नाम पड़ा। विद्या का उज्जवल रूप लिए मां का एक रूप दैत्य विनाशक भी है।
महर्षि आश्वलायन ने दस श्लोकों में सरस्वती की सुंदर आराधना की है- हे मां सरस्वती। तुम देवियों में, नदियों में और माताओं में भी सर्वश्रेष्ठ हो।
हम धन के अभाव में निंदित हो रहे हैं, मां धन रूप में समृद्धि देने की कृपा करें। सरस्वती की तीन संज्ञाएं – अंबितमा, नदीतमा, और देवीतमा हैं।
आत्मा रूपी ब्रह्मा से आकाश उत्पन्न होता है, आकाश से वायु होती है, वायु से अग्नि और अग्नि से ओंकार होता है, ओंकार से व्याहृतियां, व्याहृतियों से गायत्री, गायत्री से सावित्री, सावित्री से सरस्वती और सरस्वती से वेदों की उत्पत्ति कही गयी है। वेदों से समस्त लोगों का आविर्भाव होता है।
वसंत का उत्सव महाप्राण निराला का भी जन्मोत्सव है। छायावाद के प्रखर, प्रकृष्ट, कवि निराला ने राम की शक्ति पूजा की, तुलसी का स्तवन किया, जूही की कली खिलाई तो सांध्य सुंदरी का भी गायन किया।
कल्याण दायिनी, हिम, कपूर, मुक्ता, चंद्रप्रभा के समान शुभ्र कांतिमयी सुवर्ण के समान पीले चंपक पुष्पों की माला से शोभित, उन्न्त उदार वक्ष सहित सुंदर वागेश्वरी को मन, वाणी द्वारा विभूमि को सिद्धि हेतु नमस्कार है-
‘‘कज्जल पूरित लोचन भारे, कुच युग शोभित मुक्ताहारे।
वीणा पुस्तक रंजित हस्ते, भगवति ! भारति ! देवी नमस्ते ।।’’
श्वेत पद्म पर आसीन, शुभ्रहंस वाहिनी, तुषार धवलकांति शुभ्रवसना, स्फटिकमाला धारिणी, वीणामंडित करा, श्रुतिहस्ता भगवती भारती प्रसन्न हो। मां समस्त विद्याओं की अधिष्ठात्री हैं। यश उनकी धवल अंग ज्योत्सना हैं। वे सत्वरूपा, श्रुतिरूपा आनंद रूपा है। प्रतिभा की अधिष्ठात्री सरस्वती समस्त वांगमय संपूर्ण कला और पूरे विज्ञान की वरदायिनी देवी है।
इस प्रकार न जाने कितने कवियों ने वसंत के ही दिन भगवती सरस्वती का आवाहन किया, पूजा, अर्चना की, और आरती उतारी है। जब रसाल तरू भी रस में बौराने लगते हैं, कलिका अपना अवगुंठन खोलती है, सुरभि पीड़ित मधुप गुंजन करते हैं, सृष्टि सुरभिमयी हो जाती है। मंद समीर सौरभ के कारण धीरे-धीरे श्वास लेता है, वसुंधरा रानी का श्रृंगार जो ठहरा। जल, थल, नभ, प्रत्यूष प्रदोष, जड़ चेतन सबमें वासंती बहार छा जाती है। तन ही नहीं, मन भी बसंत के रंग में डूब जाता है, तब मदालस नयनों से कवि गुनगुनाने लगता है-
बनन में, बागन में, बगर्यो बसंत है! बसंत है !! बसंत है !!!